हवा में उड़ता कोई ख़ंजर जाता है सर ऊँचा करता हूँ तो सर जाता है धूप इतनी है बंद हुई जाती है आँख और पलक झपकूँ तो मंज़र जाता है अंदर अंदर खोखले हो जाते हैं घर जब दीवारों में पानी भर जाता है छा जाता है दश्त ओ दर पर शाम ढले फिर दिल में सब सन्नाटा भर जाता है 'ज़ेब' यहाँ पानी की कोई थाह नहीं कितनी गहराई में पत्थर जाता है