हवा-ए-इश्क़ में शामिल हवस की लू ही रही बढ़ा भी रब्त तो बे-रब्त गुफ़्तुगू ही रही न आई हाथ में तितली-गुदाज़ ख़ुशबू की गुल-ए-बदन की महक मेरे चार-सू ही रही वो दश्त दश्त सी आँखें चमन चमन चेहरा सराब-ए-ख़ौफ़ की इक लहर रू-ब-रू ही रही तुलूअ' उफ़ुक़ पे है अब तक वही सितारा-ए-बाद मैं भूल जाऊँ उसे दिल में आरज़ू ही रही हज़ार बार लुटा हुस्न-ए-बर्ग-ओ-बार मगर रग-ए-शजर में रवाँ मौज-ए-रंग-ओ-बू ही रही हरी रुतों की हुई आसमान से बारिश मगर ज़मीन-ए-तमन्ना लहू ही रही सफ़र की धूप ने तन-मन जला दिया मेरा मदार-ए-दश्त में साए की जुस्तुजू ही रही हुआ न दूर मिरे दिल से ज़ंग-ए-महरूमी तमाम रात रवाँ चश्म-ए-आब-जू ही रही अबद अबद से मिरी ख़ुद से जंग जारी है ये ख़ैर-ओ-शर की बला मुझ से दू-बदू ही रही उबलता रहता है सीने में कर्ब का लावा लिबास-ए-ख़ाक को भी हाजत-ए-रफ़ू ही रही तवाफ़-ए-शहर-ए-निगाराँ मिरा ही जुर्म नहीं ज़न-ए-हवा भी तो आवारा कू-ब-कू ही रही