हयात रास न आए अजल बहाना करे तिरे बग़ैर भी जीना पड़े ख़ुदा न करे मैं रोज़ मरता हूँ इस इंतिज़ार के सदक़े बुरा न मान अगर ज़िंदगी वफ़ा न करे हम एक हो गए दो दिन में किस तरह अल्लाह यही दुआ है कोई तीसरा जुदा न करे मनाया जश्न-ए-शब-ए-ग़म कि एक दिन तो कटा जो तुझ से छूट के जीता रहे वो क्या न करे मैं अपनी रौशनी-ए-तब्अ से लरज़ता हूँ मिरा जुनूँ मुझे मंज़िल से आश्ना न करे मैं क्या बताऊँ कि क़ुर्बत का फ़ासला क्या है कि जैसे घर तो बनाए कोई रहा न करे