हज़ार मर्तबा देखा सितम जुदाई का हनूज़ हौसला बाक़ी है आश्नाई का परी उठी मिरे पहलू से बारहा नाकाम फ़रेफ़्ता हूँ तिरी तर्ज़-ए-दिलरुबाई का मुझे अज़ाब-ए-जहन्नम कि बुत-परस्त हूँ मैं वो बुत बहिश्त में दा'वा जिसे ख़ुदाई का फ़ज़ा-ए-बाग़ से है गोशा-ए-क़फ़स ख़ुश-तर गर अपने दिल में न हो दग़दग़ा रिहाई का अदब न वादी-ए-वहशत के मुझ से तर्क हुए जुनूँ में होश रहा है बरहना-पाई का निगाह ख़ंदा तग़ाफ़ुल इ'ताब कोहना हुए निकाल तर्ज़ नया कोई दिलरुबाई का बुतों का सज्दा मिरी सरनविश्त में कब था कि अज़्म का'बे के दर पर हो जुब्बा-साई का उचक रहा है खड़ा बाम-ए-अर्श पर कम-बख़्त क़लक़ है मुझ को 'शहीदी' की ना-रसाई का