हज़ार आँखों से रोया तिरी जुदाई में न होगा मेरी तरह कोई ख़ुद-नुमाई में तमाम उम्र की महरूमियों का मालिक हूँ लगाओ अब कोई हिस्सा मिरी कमाई में ज़रा क़रीब से देखूँ तो चेहरा-ए-क़ातिल न इतनी दूर से यलग़ार कर लड़ाई में ख़ता हमारी नहीं फुलजड़ी ही गीली थी भरी है आग अभी तक दिया-सलाई में