हिजाब कोई नहीं है नक़ाब कोई नहीं मिरी खुली हुई आँखों में ख़्वाब कोई नहीं है बस सुकूँ ही सुकूँ इज़्तिराब कोई नहीं इस इंक़लाब के बाद इंक़लाब कोई नहीं हयात-ए-इश्क़ में ये वक़्फ़ा-ए-सुकूँ कैसा सवाल कोई नहीं है जवाब कोई नहीं जहान-ए-इल्म का यारो अजीब है दस्तूर कि मदरसे तो बहुत हैं निसाब कोई नहीं शब-ए-सियह में भला कौन आने वाला है कोई नहीं दिल-ए-ख़ाना-ख़राब कोई नहीं तलब की राह में हर शख़्स है बराबर का यहाँ सभी हैं समुंदर सराब कोई नहीं शब-ए-फ़िराक़ कुछ इस तरह मुतमइन हूँ 'ज़िया' कि जैसे दीदा-ओ-दिल पर अज़ाब कोई नहीं