हिजाबात उठ रहे हैं दरमियाँ से ज़मीं टकरा न जाए आसमाँ से निकाला किस ख़ता पर गुल्सिताँ से हमें ये पूछना है बाग़बाँ से वहीं जाना है आए हैं जहाँ से हैं वाक़िफ़ मंज़िल-ए-उम्र-ए-रवाँ से बहार आने की माँगी थीं दुआएँ बहार आई मगर बद-तर ख़िज़ाँ से जो हैं ना-आश्ना-ए-नज़्म-ए-गुलशन उन्हीं को फ़ाएदे हैं गुलिस्ताँ से अभी मुर्दा नहीं ज़ौक़-ए-असीरी क़फ़स का सामना है आशियाँ से जहाँ काँटों में उलझे अपना दामन बयाबाँ अच्छा ऐसे गुलिस्ताँ से ग़मों ही से ख़ुशी होती है पैदा है बहारें बनती हैं दौर-ए-ख़िज़ाँ से सहारा लूँ अगर दीवानगी का गुज़र जाऊँ हद-ए-कौन-ओ-मकाँ से नुमायाँ है वही रजअ'त-पसंदी निज़ाम-ए-ज़िंदगी बदला कहाँ से लिपट जाऊँगा मैं दामन से उन के सबक़ सीखा है ख़ाक-ए-आस्ताँ से भटकता फिर रहा हूँ इस तरह मैं कि जैसे छुट गया हूँ कारवाँ से चमन में फिर बनाएँगे नशेमन हमें ज़िद हो गई है आसमाँ से वतन दुश्मन इन्हें क्यूँ कर न समझें जिन्हें है दुश्मनी उर्दू ज़बाँ से वही है बाइस-ए-तकलीफ़ 'साजिद' मिलीं थीं राहतें जिस गुल्सिताँ से