हिज्र-ए-बे-मेहर से आज़ाद हुआ चाहते हैं दिन निकलता है तो शब-ज़ाद हुआ चाहते हैं ने'मतें पा के भी ख़ुश होते नहीं हैं कुछ लोग और कुछ साहिब-ए-औलाद हुआ चाहते हैं काश इक बार वो सीने से लगा ले हम को चंद लम्हे ही सही शाद हुआ चाहते हैं एक लम्हे के लिए भूल न पाएँ हम को हम उन्हें मिस्ल-ए-दुआ याद हुआ चाहते हैं इश्क़ वो साअ'त-ए-इम्काँ है जो ढलती ही नहीं हम इसी वास्ते फ़रहाद हुआ चाहते हैं 'अल्तमश' ठहरा था इक क़ाफ़िला प्यासों का जहाँ हम उसी दश्त की रूदाद हुआ चाहते हैं