हिज्र है दिल में ख़ाक उड़ती है सद्र-ए-महफ़िल में ख़ाक उड़ती है है जो माह-ए-सियाम ऐ साक़ी क्या ही महफ़िल में ख़ाक उड़ती है वही दिल-जूईयाँ हैं बा'द-ए-फ़ना पर मिरे दिल में ख़ाक उड़ती है वो जो आता नहीं नहाने को बहर-ओ-साहिल में ख़ाक उड़ती है तिरे जल्वे से नूर के बदले माह-ए-कामिल में ख़ाक उड़ती है जिस को तुझ से ग़ुबार है ऐ 'मेहर' उस की महफ़िल में ख़ाक उड़ती है