हिज्र इक हुस्न है इस हुस्न में रहना अच्छा चश्म-ए-बे-ख़्वाब को ख़ूँ-नाब का गहना अच्छा कोई तश्बीह का ख़ुर्शीद न तलमीह का चाँद सर-ए-क़िर्तास लगा हर्फ़-ए-बरहना अच्छा पार उतरने में भी इक सूरत-ए-ग़र्क़ाबी है कश्ती-ए-ख़्वाब रह-मौज पे बहना अच्छा यूँ नशेमन नहीं हर रोज़ उठाए जाते उसी गुलशन में उसी डाल पे रहना अच्छा बे-दिली शर्त-ए-वफ़ा ठहरी है मेआर तो देख मैं बुरा और मिरा रंज न सहना अच्छा धूप उस हुस्न की यक-लहज़ा मयस्सर तो हुई फिर न ता-उम्र लगा साए में रहना अच्छा दिल जहाँ बात करे दिल ही जहाँ बात सुने कार-ए-दुश्वार है उस तर्ज़ में कहना अच्छा