हिज्र का चाँद दर्द की नद्दी यही सूरत है अपनी दुनिया की रेगज़ारों में संग खिलते हैं जैसे बाग़ों में शाख़ शाख़ कली मेरा घर है कि 'मीर'-साहिब का उफ़ ये होंटों पे तल्ख़ तल्ख़ हँसी आ गया मौसम-ए-ज़मिस्ताँ क्या आग की जुस्तुजू में रात कटी कू-ब-कू दर-ब-दर भटकते हुए देख ली आज मौत की भी गली क़ुफ़्ल होंटों का टूट कर ही रहा दिल-ए-अफ़सुर्दा रात बीत चली एक चलती हुई ग़ज़ल पर रात 'राही'-ए-ग़म-ज़दा ने नज़्म कही