हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे दिल में इक याद कि नेज़े की अनी हो जैसे नहीं मालूम कि मैं कौन हूँ मंज़िल है कहाँ चादर-ए-ख़ाक हर इक सम्त तनी हो जैसे अपनी आवाज़ को ख़ुद सुन के लरज़ जाता हूँ किसी साए से मिरी हम-सुख़नी हो जैसे हादसा एक मगर कितने ग़मों का एहसास एक सूरत कई रंगों से बनी हो जैसे भूल कर भी कोई लेता नहीं अब नाम-ए-वफ़ा इश्क़ इस शहर में गर्दन-ज़दनी हो जैसे कितने आराम से हूँ अर्सा-ए-तन्हाई में गोशा-ए-दश्त में भी छाँव घनी हो जैसे किस क़दर नर्म ओ दिल-आवेज़ है ये गर्म सहर धूप महताब की चादर में छनी हो जैसे कभी सीने से भी फूलों की महक आती है दिल में भी कोई फ़ज़ा-ए-चमनी हो जैसे जिस्म वो जिस्म कि लपका हुआ कौंदा कोई होंट वो होंट कि लाल-ए-यमनी हो जैसे दिल में चुभती भी रही आँख में खुब्ती भी रही मिज़ा-ए-तेज़ कि हीरे की कनी हो जैसे ख़ुद ही तस्वीर बनाता हूँ मिटा देता हूँ बुत-गरी मेरे लिए बुत-शिकनी हो जैसे कम नहीं हिम्मत-ए-फ़रहाद से सई-ए-तख़्लीक़ किसी शीरीं के लिए कोह-कनी हो जैसे महफ़िल-ए-दोस्त की रौनक़ में हैं 'शहज़ाद' मगर दिल का ये हाल ग़रीब-उल-वतनी हो जैसे