हिज्र की शब ज़ुल्फ़-ए-बरहम का ख़याल आता रहा इक न इक हर दिन मिरे सर पर वबाल आता रहा शुक्र है तारीक दिल में रौशनी के वास्ते गो तसव्वुर में सही उस का जमाल आता रहा है करम उस का कि हम से बे-बसर के वास्ते आलम-ए-अम्साल में वो बे-मिसाल आता रहा भूलने वाले को आख़िर दिल भुलाए किस तरह बे-ख़याली में भी जब उस का ख़याल आता रहा मैं ने अपनी ख़स्तगी की दाद पाई इस तरह मेरे अर्ज़-ए-हाल पर उन को जलाल आता रहा बस यही क्या कम है मेरी साफ़-गोई की दलील उन के दिल में मेरी जानिब से मलाल आता रहा क्या बिगड़ जाता जो हो जाती तवज्जोह की नज़र मुद्दतों दर पर गदा-ए-बे-सवाल आता रहा मुझ को 'बेख़ुद' जब कभी आया है तौबा का ख़याल देर तक अपने गुनाहों का ख़याल आता रहा