हिकायतों से फ़सानों से रेत उड़ती है यहाँ क़दीम ज़मानों से रेत उड़ती है नशेब-ए-जाँ से उमडते हैं ताज़ा-रौ दरिया बुलंद-बाम मकानों से रेत उड़ती है लपक अलग है चमक और है ललक है जुदा ये कैसी कैसी उठानों से रेत उड़ती है यहाँ किताबों से झड़ती हैं भुर्भुरी सदियाँ और एक शेल्फ़ के ख़ानों से रेत उड़ती है ब-नज्द ख़ातिर-ए-मजनूँ वरा-ए-शौक़-ओ-जुनूँ उड़े तो कितने बहानों से रेत उड़ती है हमारी नक़्श-नुमाई को चाटने के लिए तिरे तमाम जहानों से रेत उड़ती है यहीं कहीं थे वो लहरें उछालने वाले हमारे दिल में ज़मानों से रेत उड़ती है