हाइल हैं मिरी राह में ये दैर-ओ-हरम क्यों बढ़ता हूँ तो हर गाम पे रुकते हैं क़दम क्यों जो हक़ की हिमायत में निकल आता है घर से उस मर्द-ए-मुजाहिद को हो अंदेशा-ए-ग़म क्यों ये रहबर-ए-मंज़िल हैं निशाँ इन से मिलेगा राहों से मिटाते हो मिरे नक़्श-ए-क़दम क्यों महफ़िल की निगाहें तो हैं मरकूज़ उन्हीं पर ख़ामोश नज़र आते हैं आज़र के सनम क्यों मैं ने उन्हें अपना कहा अपना ही तो समझा वो चाहते हैं करना मिरे सर को क़लम क्यों जो बात भी हक़ होगी वही बात कहेंगे मुंसिफ़ से करें हम कोई उम्मीद-ए-करम क्यों सद-शुक्र कि तू ने मुझे इंसान बनाया ग़म ही मिरी क़िस्मत है तो ये भी मुझे कम क्यों क़ुदरत ने तुम्हें ऐश-ओ-मसर्रत से नवाज़ा 'मक़्सूद' नज़र आते हो बा-दीदा-ए-नम क्यों