हिम्मत-ए-आली का इतना तो ज़ियाँ होना ही था जुर्म-ए-गीहाँ-ताब को बे-ख़ानुमाँ होना ही था ये तो ऐ मातम-कनान-ए-कुश्तगाँ होना ही था उन मुहिम-जूयाँ को इक दिन जावेदाँ होना ही था मर के भी यादों में जीना चाहता है आदमी आदमी की ज़िंदगी को इम्तिहाँ होना ही था क़िस्मत क़ामूसियाँ हर अहद में सर-गश्तगी तब तो उम्मीईन को आख़िर ज़बाँ होना ही था शाहिद-ए-महमिल है इतनी क़ुर्बतें ये दूरियाँ हाए वो जिस का मुक़द्दर सारबाँ होना ही था सौंप कर मिट्टी को मिट्टी ली हवा ने अपनी राह मश्ग़ला था ख़ाक से दामन-फ़शाँ होना ही था