जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से...
जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया
उसकी दीवार का सर से मेरे साया न गया
गुल में उसकी सी जो बू आई तो आया न गया
हमको बिन दोश-ए-सबा बाग से लाया न गया
दिल में रह दिल में कि मे मीर-ए-कज़ा से अब तक
ऐसा मतबूअ मकां कोई बनाया न गया
क्या तुनुक हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने, आह
एक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया
शहर-ए-दिल आह अजब जगह थी पर उसके गए
ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया ना गया।
This is a great दिलदार की शायरी.