ऐ सबा, लौट के...
ऐ सबा, लौट के किस शहर से तू आती है
तेरी हर लहर से बारूद की बू आती है
खून कहाँ बहता है इंसान का पानी की तरह
जिस से तू रोज़ यहाँ करके वजू आती है
धज्जियाँ तूने नकाबों की गिनी तो होंगी
यूँ ही लौट आती है या कर के रफ़ू आती है
अपने सीने में चुरा लाई है किस की आहें
मल के रुखसार पे किस किस का लहू आती है।
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