हिस-ए-कीना अदावत काटती है कि नफ़रत को मोहब्बत काटती है हर इक मुश्किल और आफ़त काटती है मुसीबत को मुसीबत काटती है न घबरा सब की ज़हमत काटती है ख़ुदा की शान रहमत काटती ये जहन्नुम सर्द कर दें अश्क मेरे गुनाहों को इबादत काटती है अमल कर नेकियों के बीज बो ले पके जब फ़स्ल मेहनत काटती है न लीजे क़र्ज़ हरगिज़ दोस्ती में ये वो शय है मोहब्बत काटती है नहीं हैं तन पे अरमानों के ज़ेवर इसे अब मेरी चाहत काटती है बहुत थोड़े बचे दिन ज़िंदगी के बहुत फ़िक्र-ए-क़यामत काटती है ब-ज़ाहिर मैं भी साया-वार घर हूँ मगर अन्दर तमाज़त काटती है मिरी शोहरत की नागिन मुझ को 'साजिद' मिरी अपनी बदौलत काटती है