हो दैर या हरम जो उठाऊँ नज़र को मैं देखूँ ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ तिरे संग-ए-दर को मैं क्यों हाल-ए-दिल सुनाऊँ किसी चारागर को मैं अपना बना चुका हूँ ग़म-ए-मो'तबर को मैं ज़ौक़-ए-निगाह अज़्म-ए-तजस्सुस की दाद दे तारीकियों में ढूँड रहा हूँ सहर को मैं नज़्ज़ारगी-ए-शौक़ का ए'जाज़ अल-अमाँ पाता हूँ आज दिल के मुक़ाबिल नज़र को मैं नक़्श-ओ-निगार-ए-ज़ीस्त के आसार हैं अयाँ कैसे छुपाऊँ पर्दा-ए-शब में सहर को मैं रात इंतिज़ार-ए-दोस्त क़यामत से कम न था हसरत से देखता रहा दीवार-ओ-दर को मैं रोज़-ए-अज़ल की अज़्मतें ले कर ख़याल में तय कर रहा हूँ ज़ीस्त की हर रहगुज़र को मैं ऐ 'दर्द' पूछिए न मिरी वुसअ'त-ए-निगाह अपनी नज़र में रखता हूँ शम्स-ओ-क़मर को मैं