हो के आशिक़ जान मरने से चुराए किस लिए मर्द-ए-मैदाँ जो न हो मैदाँ में आए किस लिए जो दिल-ओ-ईमाँ न दीं नज़्र उन बुतों को देख कर या-ख़ुदा वो लोग इस दुनिया में आए किस लिए है ये अंदाज़-ए-हया और तर्ज़-ए-तम्कीं क्यूँ नहीं जो न होवे चोर वो आँखें चुराए किस लिए देखिए किस जन्नती के आज खुलते हैं नसीब तेग़ क्यूँ तोले हैं ये चिल्ले चढ़ाए किस लिए उँगलियाँ अपने पर उठवानी न हों मंज़ूर तो वो किसी को आम महफ़िल से उठाए किस लिए उस के पेच-ओ-ख़म से जीते-जी निकलना है मुहाल हज़रत-ए-'कैफ़ी' तुम इस कूचे में आए किस लिए