हो न रुस्वा-ए-ज़माना मह-ए-कामिल की तरह

हो न रुस्वा-ए-ज़माना मह-ए-कामिल की तरह
मेरे सीने में रहो आ के मिरे दिल की तरह

तेरे दरवाज़े पे ऐ ग़ैरत-ए-लैला दिन-रात
सर पटकते रहे हम पर्दा-ए-महमिल की तरह

इस क़दर शौक़-ए-शहादत ने मुझे दौड़ाया
थक गए पाँव मिरे बाज़ू-ए-क़ातिल की तरह

सैर नैरंगी-ए-आलम की नज़र आ जाए
मेरी आँखों में अगर आ के रहो तिल की तरह

इक नज़र देख ले मुँह फेर के ओ सैद-अफ़्गन
दिल तड़पता है मिरा ताइर-ए-बिस्मिल की तरह

बे-तिरे ऐ यम-ए-ख़ूबी जो लगे मुँह से शराब
छाले पड़ जाएँ हबाब-ए-लब-ए-साहिल की तरह

वहशत-ए-दिल से हो क्या आशिक़-ए-गेसू को नजात
जादा-ए-दश्त लिपटते हैं सलासिल की तरह

क़द्र जानोगे मोहब्बत की तब ऐ जान-ए-जहाँ
तुम भी जब रंज उठाओगे मिरे दिल की तरह

आप खुल खेले अगर मुझ से शब-ए-वस्ल तो क्या
न खुली दिल की गिरह उक़्दा-ए-मुश्किल की तरह

रंग लाए जो मिरा ख़ून-ए-तमन्ना 'वहबी'
दामन-ए-हश्र बने दामन-ए-क़ातिल की तरह


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