हूक उठती है मिरे क़ल्ब की गहराई में उस की याद आती है जब रात की तन्हाई में अब तो दो वक़्त की रोटी भी नहीं मिलती है ज़िंदगी कैसे कटेगी मिरी महँगाई में आज आया वो मिरे घर तो ये महसूस हुआ माहताब उतरा हो जैसे मिरी अँगनाई में मेरी आँखों से निकल आए ख़ुशी के आँसू बेटी रुख़्सत जो हुई गूँजती शहनाई में घर में मेहमाँ अगर आएँ तो ख़ुशी होती है मैं कसर कुछ नहीं रखता हूँ पज़ीराई में न तो रोटी ही मयस्सर है न कपड़ा न मकाँ ज़िंदगी यूँ भी गुज़र जाती है कठिनाई में हुस्न ऐसा है कि आईने को हैराँ कर दे इक वफ़ा की ही कमी है मिरे हरजाई में कैसे अशआर में लाएगा ग़ज़ल की ख़ुशबू वो जो मसरूफ़ है बस क़ाफ़िया पैमाई में दाख़िला मेरा ही ममनूअ' है गुलशन में 'ज़की' जब कि ख़ूँ मैं ने दिया बाग़ की ज़ेबाई में ऐ 'ज़की' मैं ने भी ये ख़्वाह नहीं समझा था उन की साज़िश रही शामिल मिरी पस्पाई में