होश जिस वक़्त भी आएगा गिरफ़्तारों को ख़स की मानिंद उड़ा डालेंगे दीवारों को ज़िंदगी करनी है तुम को तो तड़पना सीखो ज़ंग लग जाता है रक्खी हुई तलवारों को ज़ख़्म सीने पे किसी के नहीं आया अब तक आज़माया है बहुत क़ौम के सरदारोँ को इतने ऊँचे भी न उट्ठो कि सँभल भी न सको हम ने गिरते हुए देखा कई मीनारों को बुज़दिली है कि ये नादानी है आख़िर क्या है लोग अश्कों से बुझाने लगे अँगारों को वही रिश्वत वही इग़वा वही ख़बरें 'इरफ़ाँ' हम तो बिन देखे ही पढ़ लेते हैं अख़बारों को