होती नहीं रसाई-ए-बर्क़-ए-तपाँ कहाँ ऐ हम-नशीं बनाइए अब आशियाँ कहाँ ठहरे मिसाल तेरी गुल-ए-अर्ग़वाँ कहाँ ऐ मह-जबीं ज़मीन कहाँ आसमाँ कहाँ छाना किया मैं ख़ाक-ए-दो-आलम तमाम उम्र अपनी तलाश ले गई मुझ को कहाँ कहाँ छुटता हुजूम-ए-ग़म से मिरा साथ किस तरह जाता बिछड़ के मुझ से मिरा कारवाँ कहाँ महदूद जिन की दैर-ओ-हरम तक थी जुस्तुजू होता नसीब उन को तिरा आस्ताँ कहाँ हर मंज़िल-ए-हयात की हद पार हो चुकी ले जाएगी अब और ऐ उम्र-ए-रवाँ कहाँ सय्याद ने भी मुझ को रहा कर दिया 'जलीस' क़िस्मत में अब क़फ़स भी नहीं आशियाँ कहाँ