हुआ न ख़त्म अज़ाबों का सिलसिला अब तक ख़िज़ाँ की ज़द में भी इक फूल है हरा अब तक मिला था ज़हर जो विर्से में पी रहे हैं हम न उस ने सुल्ह की सोची न मैं झुका अब तक ये सच है वहम के दलदल से लौट आया हूँ मगर यक़ीन का धुँदला है आइना अब तक इन्ही ग़मों का वो इक दिन हिसाब माँगेगा फ़लक से जो मिरे कश्कोल में पड़ा अब तक अभी अभी मिरी आँखों ने खो दिया उस को वो दर्द बन के मिरी सिसकियों में था अब तक न जाने कितनी बली दी है रत-जगों की उसे मगर मिला न वो ख़्वाबों का देवता अब तक जुदा हुई थी जहाँ मिल के ज़िंदगी इक दिन भटक रही है वहीं मेरी आत्मा अब तक