हुआ शु'ऊर तो ख़ुद-आगही के पर निकले फ़सील-ए-ज़ात में ख़ुश-फ़हमियों के दर निकले मैं अपने क़त्ल का इल्ज़ाम किस के सर रखता जब अपने हाथ ही अपने लहू में तर निकले तिरी तलाश में अक्सर सफ़ीर यादों के रिदा-ए-ख़्वाब सर-ए-शाम ओढ़ कर निकले हुईं दराज़ जो मेहर-ए-सहर की शमशीरें तमाम जिस्मों के साए बुरीदा-सर निकले जिन्हें तलाश थी शादाब-ओ-सब्ज़ मौसम की उन्हीं की राह में सूखे हुए शजर निकले