हू-ब-हू आप ही की मूरत है By Ghazal << काफ़िर था मैं ख़ुदा का न ... हरीफ़-ए-गर्दिश-ए-अय्याम त... >> हू-ब-हू आप ही की मूरत है ज़िंदगी कितनी ख़ूबसूरत है जिस तरह फूल की गुलिस्ताँ को ज़िंदगी को मिरी ज़रूरत है ख़ास मेहमाँ हैं आदम ओ हव्वा इक नई दुनिया की महूरत है कहती है कुछ ज़बाँ से कह 'अकबर' इस तरह काहे मुझ को घूरत है Share on: