हुए अब हम से तुम गर दुश्मन-ए-जानी तो बेहतर है मियाँ ग़ैरों से मिल कर दिल में यूँ ठानी तो बेहतर है नहीं है ख़ूब सोहबत हर किसी कम-ज़र्फ़ से लेकिन नहीं गर मानते अज़-राह-ए-नादानी तो बेहतर है ब-जुज़ ख़ुश-तबई-ओ-चश्मक न देखा हर्फ़ में तुम से करो मौक़ूफ़ अगर ये वज़-ए-रिन्दानी तो बेहतर है ज़े-रूए-ख़ैर-ख़्वाही तुम से मैं कहता हूँ ऐ प्यारे नसीहत तुम ने ये मेरी अगर मानी तो बेहतर है जहाँ से उठ गया 'सौदा' सा शाइ'र हैफ़ ऐ 'माहिर' करे गर तर्क तू शेर-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी तो बेहतर है