हुई है साया-फ़गन सब्र की क़बा मुझ पर चलाए तीर कहो आ के हुर मिला मुझ पर खिंचा हुआ है मिरे गिर्द मामता का हिसार असर कहाँ से करे कोई बद-दुआ' मुझ पर मिटा सकी न मिरे पाँव की लकीरें तक हज़ार रेत उड़ाती रही हवा मुझ पर मिरे वजूद से आगे न थी कोई मंज़िल उदासियों का सफ़र ख़त्म हो गया मुझ पर उसी को सारे ज़माने ने मिल के बाँट लिया जो रह गया था गुज़रने से सानेहा मुझ पर मिरे बदन पे रिया का नहीं कोई धब्बा भली कहाँ से लगेगी तिरी क़बा मुझ पर क़ुबूल होतीं अगर पस्तियाँ मुझे 'काज़िम' ये आसमान-ए-मसाइल न टूटता मुझ पर