हुजूम-ए-सिलसिला-ए-रफ़्तगाँ दिखाई दिया ज़मीन पर ही मुझे आसमाँ दिखाई दिया मैं ऐसे शहर में कुछ दिन गुज़ार आया हूँ हर एक शख़्स जहाँ बे-ज़बाँ दिखाई दिया निगार-ख़ाना-ए-हैरत में एक शब गुज़री फिर उस के बाद वो मंज़र कहाँ दिखाई दिया समझ रहा था जिसे अपना हम-सफ़र वो भी हरीस-ए-मम्लिकत-ए-जिस्म-ओ-जाँ दिखाई दिया फ़क़त चराग़ न थे मेरी रहबरी के लिए इक ईना भी पस-ए-कारवाँ दिखाई दिया हर एक शख़्स दयार-ए-सुख़न-फ़रोशां में नक़ीब-ए-फ़ितरत-ए-बाज़ी-गराँ दिखाई दिया किसी ने शहर को सहरा बना दिया 'अख़्तर' किसी को दश्त भी इक साएबाँ दिखाई दिया