हुजूम-ए-दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो मिले वो रात कि जिस रात की सहर गुम हो मज़ा तो जब है कि आवार्गान-ए-शौक़ के साथ ग़ुबार बन के चले और रहगुज़र गुम हो हमारी तरह ख़राब-ए-सफ़र न हो कोई इलाही यूँ तो किसी का न राहबर गुम हो चले हैं हम भी चराग़-ए-नज़र जलाए हुए ये रौशनी भी कहीं राह में अगर गुम हो तलाश-ए-दोस्त है दिल को मगर ख़ुदा जाने कहाँ कहाँ ये भटकता फिरे किधर गुम हो चमन चमन हैं वो नश्व-ओ-नुमा के हंगामे गुलों को ढूँडने जाए तो ख़ुद नज़र गुम हो सुख़न की जान है हुस्न-ए-बयाँ मगर 'ताबाँ' न यूँ कि लफ़्ज़ ही रह जाएँ फ़िक्र-ए-तर गुम हो