हुजूम-ए-दर्द मिला इम्तिहान ऐसा था मगर वो चुप ही रहा बे-ज़बान ऐसा था किसी की इज़्ज़त-ओ-नामूस पर न आँच आई लुटा तो उफ़ भी न की मेहरबान ऐसा था ज़माना गुज़रा मगर दाग़ रह गया दिल पर न मिट सका किसी सूरत निशान ऐसा था बदन की शाख़ से उस के किरन जो लिपटी थी वो सह सका न उसे धान-पान ऐसा था मता-ए-ज़ीस्त लुटा दी गई मगर उस ने ज़रा भी क़द्र न की बद-गुमान ऐसा था नज़र-शनास था कैसा कि उम्र भर 'अंजुम' भुला सका न उसे मेहमान ऐसा था