हुजूम-ए-ग़म में किस ज़िंदा-दिली से मुसलसल खेलता हूँ ज़िंदगी से क़रीब आते हैं लेकिन बे-रुख़ी से पुराने दोस्त भी हैं अजनबी से फ़रिश्ते दम-ब-ख़ुद इबलीस हैराँ तवक़्क़ो ये कहाँ थी आदमी से निज़ाम-ए-अस्र-ए-नौ ये कह रहा है अंधेरे फैलते हैं रौशनी से चले आए हरम से मय-कदे में परेशाँ हो गए जब ज़िंदगी से लगी है आग जब से गुलिस्ताँ में बहुत डरने लगा हूँ रौशनी से न हो जो तरजुमान-ए-वक़्त 'रज़्मी' भला क्या फ़ाएदा उस शाइरी से