हुक्म क्या दे किसी को वो जिस की उम्र गुज़री है इल्तिजाओं में दुख तो इस बात का हर इक को है क्यों असर अब नहीं दुआओं में है बहुत ही कठिन वफ़ा की डगर देख छाले हैं कितने पाँव में क्या सहेंगे वो धूप की तेज़ी पाँव जलते हैं जिन के छाँव में अब न वो सादगी न मेहर-ओ-वफ़ा किस क़दर था ख़ुलूस गाँव में कितनी मुश्किल से चल रही है ग़ज़ल ज़ख़्म कितने लगे हैं पाँव में अब ये उर्दू ज़बाँ का आलम है शहर सिमटा हो जैसे गाँव में ज़िंदगी को मिला है चैन कहाँ आ गई जब अज़ल की छाँव में इल्तिजा ये 'शफ़क़' की सब से है याद रखना इसे दुआओं में