हम आए जब तो बुझा कर चराग़-ए-दर आए कि और कोई न तन्हाइयों के घर आए उभारने के लिए नक़्श कूज़ा-गर आए तो ख़ुद ही उड़ के मिरी ख़ाक-ए-चाक पर आए जहाँ-जहाँ भी अँधेरों की हुक्मरानी थी चराग़-ए-नक़्श-ए-क़दम हम जला के धर आए फ़ज़ा-ए-दश्त से मानूस हो गया मिरा दिल अगरचे सामने हिर-फिर के बाम-ओ-दर आए न बस्तियाँ थीं न वो बाम-ओ-दर न वो चेहरे हमारे क़ाफ़िले जिस वक़्त लौट कर आए ये रिश्ता संग-ओ-समर का बहुत पुराना है चले हैं संग भी जब शाख़ पर समर आए निगाह ख़म जो हुई दिल जो ख़ाक-ए-राह हुआ मिरे क़रीब कई लोग मो'तबर आए कभी तो मौज-ए-सुख़न मेहरबाँ हो मेरे लिए कभी तो हाथ कोई दाना-ए-गुहर आए ये दश्त क्यों नहीं देता कोई जवाब मुझे ये क्या कि बस मिरी आवाज़ लौट कर आए अजब है अद्ल का मेआ'र उस की बस्ती में ख़िरद गुनाह करे और जुनूँ के सर आए जब उस के आने की उम्मीद ही नहीं 'यावर' अब इस से क्या मुझे शाम आए या सहर आए