हम भी देखेंगे कि आना तिरा क्यूँकर न हुआ ये भी इक खेल हुआ फ़ित्ना-ए-महशर न हुआ हम ही थे ख़ाक के पुतले कि हुए जल कर ख़ाक ऐ फ़लक और कोई तुझ को मयस्सर न हुआ वाए नाकामी-ए-क़िस्मत कि कभी हल्क़ अपना क़ाबिल-ए-ख़ंजर-ओ-शमशीर-ए-सितमगर न हुआ हम न कहते थे किया कर न सदा शोर-ओ-फ़ुग़ाँ इन्हीं बातों से ठिकाना दिल-ए-मुज़्तर न हुआ मेरी वहशत ने किया हश्र में हंगामा सा चाक सौ जाए से कम दामन-ए-महशर न हुआ हसरत उस आशिक़-ए-नाशाद पे जिस का ये हाल न हुआ वस्ल-ए-बुताँ और उसे दूभर न हुआ हम तो कहते थे दिला जी का लगाना है बुरा आख़िरश आगे वो आया न कि बेहतर न हुआ आब-ए-शमशीर तिरा काम न आया अपने दहन-ए-ख़ुश्क-ओ-लब-ए-तिश्ना गुलू तर न हुआ क़िस्मत-ए-ग़ैर ही अच्छी है कि हर-दम है विसाल हम से तो हश्र का भी वा'दा मुक़र्रर न हुआ सख़्तियाँ थीं मेरे क़िस्मत की तिरी उल्फ़त में पीटना जाँ का किसी दिन बुत-ए-काफ़िर न हुआ हैं ये सामान-ए-शब-ए-ऐश के नाहक़ ता'ने कब तुम आए थे कि कुछ मुझ को मयस्सर न हुआ जुर्म-ए-यक-बोसा-ए-अबरू पे किए दो टुकड़े ज़ुल्म ये शिकवा ये बाक़ी कि बराबर न हुआ घर में जाती नहीं पहचानी तिरी शक्ल 'हया' उस पे हसरत कि दर-ए-यार पे बिस्तर न हुआ