हम फ़क़ीरों का सुने गर ज़िक्र-ए-अर्रा फ़ाख़्ता अपनी कू-कू पर करे हरगिज़ न ग़र्रा फ़ाख़्ता जल के ख़ाकिस्तर अभी हो जाए तू इक आन में गर तिरे दिल में हो सोज़-ए-इश्क़ ज़र्रा फ़ाख़्ता चश्म-ए-तर से अपनी तू सैराब रख शमशाद को याँ दरख़्त-ए-ख़ुश्क पर चलता है अर्रा फ़ाख़्ता जामा-ए-ख़ाकिस्तरी से तेरे ये साबित हुआ अपनी दरवेशी का है तुझ भी ग़र्रा फ़ाख़्ता जिस पर उस माह-ए-तमामी-पोश का साया पड़े बाग़ में वो सर्व हो रश्क-ए-महर्रा फ़ाख़्ता इशक़-ए-मिज़्गाँ ने भी तो खींचा है दार-ए-सर्व पर याद-ए-अबरू में अगर है ज़ेर-ए-अर्रा फ़ाख़्ता मुर्ग़-ए-बुसतानी का उस के सामने दम बंद है नग़्मा-संजी में न कर 'ग़ाफ़िल' से ग़र्रा फ़ाख़्ता