हम जो टूटे तो ग़म-ए-दहर का पैमाना बने ख़ाक में मिल के भी ख़ाक-ए-रह-ए-मय-खाना बने कौन इस बज़्म में समझेगा ग़म-ए-दिल की ज़बाँ बात छोटी सी जब अफ़्साना-दर-अफ़्साना बने संग-अंदाज़ों से ऊँचा है बहुत अपना मक़ाम वर्ना मुमकिन था निशाना सर-ए-दीवाना बने शहर-ए-जानाँ से भी हम लाए मोहब्बत का ख़िराज क्या ज़रूरी है कि याँ वज़-ए-गदायाना बने वहशत आमादा-ए-रुसवाई है बे-ख़ौफ़ जहाँ ज़ब्त का है ये तक़ाज़ा कि तमाशा न बने ज़िंदगी हम तिरे इतने तो ख़ता-वार न थे कि जिसे अपना बनाएँ वही बेगाना बने इक तमन्ना कोई ऐसा तो बड़ा जुर्म न थी आँख ता-मर्ग छलकता हुआ पैमाना बने क्या रिफ़ाक़त है यही ऐ दिल-ए-आशुफ़्ता-मिज़ाज देख हम एक तिरे वास्ते क्या क्या न बने अजनबी लगते हैं हम अपनी नज़र को ख़ुद ही आप अपने से न इतना कोई बेगाना बने हम पे इक उम्र से तारी है ख़मोशी ऐसी एक नक़्शे पे सिमट जाए तो अफ़्साना बने ऐ मिरे हौसला-ए-ग़म है यही वक़्त-ए-वफ़ा ज़हर ही हासिल-ए-सद-उम्र-ए-तमन्ना न बने ज़िंदगी करने के अंदाज़ तो भूलो न 'वहीद' तुम ने क्या सीखा अगर इश्क़ सलीक़ा न बने