हम राज़-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल जान गए हैं फिर भी तिरी आँखों का कहा मान गए हैं तू शोला-ए-जाँ निकहत-ए-ग़म सौत-ए-तलब है हम जान-ए-तमन्ना तुझे पहचान गए हैं क्या क्या न तिरे शौक़ में टूटे हैं यहाँ कुफ़्र क्या क्या न तिरी राह में ईमान गए हैं इस रक़्स में शोले के कोई सेहर तो होगा परवाने बड़ी आन से क़ुर्बान गए हैं खींचे है मुझे दस्त-ए-जुनूँ दश्त-ए-तलब में दामन जो बचाए हैं गरेबान गए हैं 'बाक़र' है इसी गर्द-ए-रह-ए-दिल का परस्तार जिस राह से कुछ साहब-ए-दीवान गए हैं