हम तो यूँ उलझे कि भूले आप ही अपना ख़याल

हम तो यूँ उलझे कि भूले आप ही अपना ख़याल
हाँ कोई होता भी होगा भूलने वाला ख़याल

एक पत्थर की तरह से डूबता जाता है दिल
हो रहा है और गहरा और भी गहरा ख़याल

आब-ए-हैराँ पर किसी का अक्स जैसे जम गया
आँख में बस एक लम्हे के लिए ठहरा ख़याल

फिर तो कब अपने रहे कब कार-ए-दुनिया के रहे
जब से हम पर छा गया इस जान-ए-दुनिया का ख़याल

नक़्श-ए-हैरत हो गई फिर अपनी हैरानी पे चश्म
ज़िंदगी आईना थी और आईना-ख़ाना ख़याल

शाम गहरी हो के फिर उतरी फिर इस दिल को लगा
इक ख़याल ऐसा ख़याल ऐसा ख़याल ऐसा ख़याल


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