हुस्न-ए-तमाम एक दिन इंसान बन के आ और कुछ नहीं तो मेरा ही अरमान बन के आ रोज़-ए-अज़ल से लिखता रहा हूँ जो दास्ताँ अब ऐसी दास्तान का उन्वान बन के आ जो लोग ज़िंदगी में हैं ग़म से शिकस्ता-दिल ज़ेहनों में उन के वक़्त का तूफ़ान बन के आ मौसम हर एक दे गया है तजरबे हज़ार जो प्यार दे वो मौसमों की जान बन के आ दुनिया में तेरी मैं कभी हाज़िर न हो सका लेकिन तू मेरे दर्द का दरमान बन के आ