हुस्न हर नौनिहाल रखता है कोई तुझ सा जमाल रखता है मुझ से हो तेरे जौर का शिकवा ये भला एहतिमाल रखता है तुझ से कुछ अपना अर्ज़-ए-हाल करे दिल कब इतनी मजाल रखता है माह क्या है कि जिस से दूँ तश्बीह हुस्न तू बे-ज़वाल रखता है जीते-जी उस से आशिक़-ए-महजूर कब उमीद-ए-विसाल रखता है तू कहाँ और उस का वस्ल कहाँ ये ख़याल-ए-मुहाल रखता है जी में 'बेदार' तेरे मिलने का आह क्या क्या ख़याल रखता है