हुस्न-ए-परवाज़ बे-कराँ बोले सर उठाऊँ तो आसमाँ बोले इस नज़र की ज़बान को समझो जो ख़मोशी के दरमियाँ बोले बे-ख़ुदी में नज़र नहीं आता हम कहाँ समझे तुम कहाँ बोले ख़त्म हो जब फ़साद की शोरिश घर की दीवार साएबाँ बोले बोलियों के हुजूम में रह कर कोई बोली न बे-ज़बाँ बोले तुम न बोलो तो इक जहाँ ख़ामोश तुम जो बोलो तो इक जहाँ बोले जिस से गिर जाए बात की रिफ़अत बात ऐसी न राज़-दाँ बोले सब हैं 'इक़बाल' मस्त अपने में हाल-ए-दिल कब कोई कहाँ बोले