हुसूल-ए-मक़्सद में आख़िरश यूँ रहेगी क़िस्मत दख़ील कब तक तुम अपनी नाकामियों पे दोगे मुक़द्दरों की दलील कब तक समुंदरों की रियासतों को लुटा के आवारा फिरने वालो अब एक क़तरे की मिन्नतों से करोगे ख़ुद को ज़लील कब तक तू मर्द-ए-मोमिन है अपनी मंज़िल को आसमानों पे देख नादाँ कि राह-ए-ज़ुल्मत में साथ देगा कोई चराग़-ए-अलील कब तक जलाल-ए-रफ़्ता को भूल भी जा ज़रूरत-ए-हाल पर नज़र कर रखे गा चूल्हे की आग ठंडी पए-वक़ार-ए-क़बील कब तक दराज़ी-ए-क़द से आदमी को नसीब होती नहीं बुलंदी तुझे फ़रेब-ए-फ़राज़ देगी ये कजकुलाह-ए-तवील कब तक