आई बहार दौर हो साक़ी शराब का दरिया बहा दे बज़्म में अश्क-ए-कबाब का इस आफ़्ताब-ए-रुख़ पे नज़र अपनी पड़ते ही शबनम की तरह उड़ गया पर्दा हिजाब का किस बेवफ़ा पे मरता है क्या कीजिए उसे घर और हो कहीं दिल-ए-ख़ाना-ख़राब का करने तो दो सवाल करें हैं तो क्या आशिक़ हूँ मैं भी इक बुत-ए-ख़ाना-ख़राब का हर-दम वो मुझ को देख के अबरू चढ़ाते हैं प्यासा है ख़ंजर उन का मिरे ख़ून-ए-नाब का क़दमों को चूमता ऐ सनम आते-जाते मैं क्यूँ संग में बना नहीं तेरी जनाब का सदमे फ़िराक़-ए-यार के क्या कम हैं ऐ 'नसीम' महशर में मुझ को ख़ौफ़ नहीं कुछ हिसाब का