आई है जाने कैसे इलाक़ों से रौशनी और ढूँढती है किस को ज़मानों से रौशनी हो कर रही वो एक ज़माने पे मुन्कशिफ़ दीवार से रुकी न दरीचों से रौशनी मौज-ए-यक़ीं के हाथ न आई तमाम-उम्र वो लौ जिसे मिली है गुमानों से रौशनी करते हैं आज उस पे मह-ओ-आफ़्ताब रश्क आँखों को जो मिली तिरे ख़्वाबों से रौशनी महकी हुई हूँ आप की क़ुर्बत से मेरी जान कल रात कह रही थी चराग़ों से रौशनी पहले मैं एक हर्फ़-ए-उजाला और उस के बा'द आने लगी है कितनी किताबों से रौशनी पहले चराग़-ए-चश्म को रौशन किया था मैं फिर फूटने लगी थी सितारों से रौशनी हर्फ़-ए-सुख़न से खुल गई दुनिया पे ऐ 'अतीक़' दिल में है कैसे कैसे ख़यालों से रौशनी