आई पतझड़ गिरे फ़स्ल-ए-गुल के निशाँ रात-भर में कट गए कैसे कैसे सजीले जवाँ रात भर में टूटती पत्तियों की निगाहों में बेचारगी है राख सी बुझ गई पंछियों की फ़ुग़ाँ रात-भर में दो-घड़ी और सुन मेरी फ़ुर्क़त के बेताब नौहे ख़त्म कैसे हो इक उम्र की दास्ताँ रात-भर में तो जो आया तो गुज़री बहारें भी हमराह लाया याद के दश्त में खिल गए गुल्सिताँ रात-भर में उस को पहचान पाई न सूरज की पहली किरन भी जैसे नौरस कली हो गई हो जवाँ रात-भर में लाया क्या क्या गुहर सोच सागर से सपनों का माँझी मिल गईं कितनी खोई हुई कश्तियाँ रात-भर में