इब्तिदा हूँ कि इंतिहा हूँ मैं उम्र भर सोचता रहा हूँ मैं लफ़्ज़-ओ-मा'नी से मावरा हूँ मैं एक ख़ामोश इल्तिजा हूँ मैं दिल में कोई ख़ुशी नहीं लेकिन आदतन मुस्कुरा रहा हूँ मैं ना-तवाँ हो के अद्ल चाहता हूँ वाक़ई क़ाबिल-ए-सज़ा हूँ मैं देख कर रंग बज़्म-ए-आलम का नक़्श-ए-दीवार बन गया हूँ मैं सुबह के इंतिज़ार में 'रिफ़अत' रात भर सोचता रहा हूँ मैं