इब्तिदा में जहाँ-नुमा हुआ मैं बाद में क़ाफ़िला-ज़दा हुआ मैं इक तहय्युर से आश्ना हुआ जब ख़ुद तक आने का रास्ता हुआ मैं रात कल आसमान था ख़ाली अपने कमरे में था बुझा हुआ मैं दर भी दरवाज़ा हो गया आख़िर कहाँ ठहरूँ सफ़र किया हुआ मैं एक आहट और एक सन्नाटा दरमियाँ जिन के चीख़ता हुआ मैं कान हाथों से ढाँपता हुआ तू अपनी आवाज़ घोंटता हुआ मैं शाम का डूबता हुआ सूरज और सूरज को घूरता हुआ मैं जितने अल्फ़ाज़ थे खुले मुझ में शायरी से हरा-भरा हुआ मैं